जब हम किसी लंबी यात्रा पर जाते हैं तो पूरे संसाधनों से लैस होते हैं। हम जानते हैं कि रास्ते में कोई बाधा नहीं है। कभी-कभी हम सफर को सुगम बनाने के लिए रास्ते में रुक जाते हैं। जीवन भी एक यात्रा है। बस पता नहीं कब तक, लेकिन जब तक है, आराम से रहो, खुश रहो, हम अक्सर यह झिझक करते हैं। आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में इंसान अपने लक्ष्य को पाने के लिए हर संभव प्रयास करता है। वह पीछे मुड़कर नहीं देखता, वह तब तक नहीं रुकता जब तक वह काफी बूढ़ा नहीं हो जाता। एक विचारधारा का कहना है कि जीवन को नदी की तरह बहने देना चाहिए, क्योंकि बहाव के विपरीत जाना ठहराव है, जो कि मृत्यु है, लेकिन जीवन में कुछ देर ठहरना भी उतना ही जरूरी है, खुद सही दिशा निर्धारित करना- अवलोकन। मन की भटकन को रोक, उसे सकारात्मक नजरिया देना जरूरी है।
तेज बहाव वाली नदी जब उफान मारती है तो उस पर बांध बनाना जरूरी हो जाता है। इसी प्रकार मनुष्य को भी अपने भावों को स्थिरता प्रदान करने के लिए स्थिरता को स्वीकार करना पड़ता है। कठिनाई यह है कि आज मनुष्य को अपनी धुन में चलाया जा रहा है। उनकी जीवनशैली में बदलाव को भी एक बाधा माना गया है। चलते रहना, ठहरना ही अंत है, ऐसा विचार कर वह चिंतित हो रहा है और अपने मन की शांति को नष्ट कर रहा है। वह केवल ‘मैं’ के भाव में उलझे हुए जीवन को आसानी से स्वीकार नहीं कर पाता। वास्तव में मन को नियंत्रित करना आवश्यक है। कुछ पल अपने आप में लेना, अपने भीतर झांकना असीम शांति का अनुभव करने और तनाव से मुक्ति का साधन है। ध्यान, अध्यात्म की ओर झुकाव, धार्मिक अनुष्ठान जीवन की तेज गति को थामने के प्रयास मात्र हैं। जीवन की दौड़ में, अपनी शारीरिक, मानसिक ऊर्जा को सोच-समझकर व्यक्त करने में ही समझदारी है। यदि ऐसा नहीं किया गया तो मनुष्य मर्ग-तृष्णा में फंसा रहेगा और निश्चित रूप से अपना जीवन और परलोक खराब करता रहेगा।